शनिवार, 1 नवंबर 2025

पवित्रता और मानवीयता का उत्सव 1 नवंबर

 सभी संतों को नमन

पटना.सभी संतों को नमन: पवित्रता और मानवीयता का उत्सव 1 नवंबर — यह तिथि केवल ईसाई कैलेंडर का एक दिन नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता और मानवता की महानता का उत्सव है.इस दिन विश्व भर का ईसाई समुदाय ऑल सेंट्स डे या सर्व संतों का पर्व मनाता है — एक ऐसा अवसर, जब वे उन सभी संतों को स्मरण करते हैं जिन्होंने अपने जीवन को ईश्वर और मानवता की सेवा में अर्पित किया.

    इतिहास की पवित्र गूंज इस परंपरा की जड़ें 609 ईस्वी में मिलते हैं, जब पोप बोनिफेस चतुर्थ ने रोम के प्रसिद्ध पैंथियन मंदिर को एक ईसाई चर्च में रूपांतरित कर दिया. इसे उन्होंने सेंट मैरी एंड द मार्टियर्स (सेंट मैरी और शहीदों का चर्च) के नाम से समर्पित किया.दो शताब्दियों बाद, 837 ईस्वी में पोप ग्रेगरी चतुर्थ ने इस पर्व को नवंबर में स्थानांतरित किया. तब से यह दिन न केवल पश्चिमी ईसाई जगत में, बल्कि विश्व के हर कोने में श्रद्धा और विनम्रता के साथ मनाया जाता है.

    संतत्व का अर्थ ईसाई परंपरा में “संत” वह नहीं जो केवल मठों में तपस्या करता है, बल्कि वह भी है जो जीवन की कठोर वास्तविकताओं में भी करुणा और सच्चाई का उदाहरण बनता है.भारतीय संस्कृति में भी यही भाव संत तुलसीदास, कबीर, नानक और बुद्ध की वाणी में प्रतिध्वनित होता है. जिस प्रकार भारत में ‘संत’ शब्द करुणा, समानता और प्रेम का प्रतीक है, उसी प्रकार पश्चिम में Saint ईश्वर के मार्ग पर चलने वाले उन साधकों का प्रतीक है, जिन्होंने समाज को प्रकाश दिया.

  आध्यात्मिक निरंतरता 31 अक्टूबर की रात को ऑल हैलोज़ ईव यानी हैलोवीन मनाई जाती है — संतों की पूर्वसंध्या. इसके अगले दिन, 2 नवंबर को ऑल सोल्स डे आता है, जब ईसाई मृत आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं.इस प्रकार अक्टूबर के अंत और नवंबर की शुरुआत आत्मचिंतन, स्मरण और आत्मा की पवित्रता के उत्सव के रूप में देखी जाती है.

     आज के समय का संदेश आज जब दुनिया भौतिकता की दौड़ में आत्मा को पीछे छोड़ चुकी है, ऑल सेंट्स डे हमें भीतर झाँकने का अवसर देता है. यह पर्व याद दिलाता है कि पवित्रता कोई चमत्कार नहीं, बल्कि जीवन जीने की सजग शैली है.संत हमें यही सिखाते हैं कि भलाई के लिए कोई मंच नहीं चाहिए — एक विनम्र कर्म, एक सच्चा शब्द, एक करुणामय दृष्टि भी संतत्व की राह है.जिस प्रकार भारत में दीपावली अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रतीक है, उसी प्रकार ऑल सेंट्स डे अंधेरे मन से उजली आत्मा की ओर लौटने का आह्वान है.संतों को नमन — क्योंकि वे हमारे भीतर सोई हुई दिव्यता को जगाने की प्रेरणा हैं.


आलोक कुमार

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

"देश के गरीब और वंचित वर्गों को आत्मसम्मान और अधिकार की भावना दी"


 *स्व. इंदिरा गांधी और सरदार पटेल को कांग्रेस ने किया याद

 पटना .आज बिहार प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय, सदाकत आश्रम में भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी जी की 41वीं पुण्यतिथि पर उनकी प्रतिमा पर एवं भारत के लौह पुरुष, पूर्व गृह व रक्षा मंत्री स्व. सरदार वल्लभ भाई पटेल की 150वीं जयंती के अवसर पर उनके तैल चित्र पर माल्यार्पण किया गया.

     इस अवसर पर राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत  ने इंदिरा गांधी जी के राष्ट्र निर्माण में योगदान को याद करते हुए कहा कि उन्होंने अपने अदम्य साहस, निर्णायक नेतृत्व और भारत की एकता-अखंडता की रक्षा के लिए जो योगदान दिया, वह सदैव प्रेरणास्रोत रहेगा. उन्होंने कहा कि इंदिरा गांधी जी ने गरीबी हटाओ का नारा देकर देश के गरीब और वंचित वर्गों को आत्मसम्मान और अधिकार की भावना दी.

     अशोक गहलोत  ने साथ ही सरदार वल्लभभाई पटेल जी की जयंती पर उन्हें नमन करते हुए कहा कि लौह पुरुष पटेल ने अपने अद्भुत संगठन कौशल और दृढ़ संकल्प के बल पर 562 रियासतों का एकीकरण कर भारत की एकता की नींव रखी। उनके योगदान को सदैव स्वर्ण अक्षरों में याद किया जाएगा.

        कार्यक्रम में मुख्य रूप से राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, अ.भा.कां.कमेटी के महासचिव अविनाश पाण्डेय, अ.भा.कां.क. मीडिया विभाग के चेयरमैन पवन खेड़ा, बिहार चुनाव के पर्यवेक्षक अधीर रंजन चौधरी , सांसद डा0 अखिलेश प्रसाद सिंह, पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष कौकब कादरी, कोषाध्यक्ष जितेन्द्र गुप्ता, मोती लाल शर्मा,सुबोध कुमार, राजेश राठौड़, जमाल अहमद भल्लू, ब्रजेश प्रसाद मुनन, अजय चौधरी , शरवत जहां फातिमा, कमलदेव नारायण शुक्ला,रौशन कुमार सिंह, मंजीत आनन्द साहू, राज किशोर सिंह,वैद्यनाथ शर्मा, शशि कांत तिवारी,विमलेश तिवारी, शकीलुर रहमान, सत्येन्द्र कुमार सिंह, अरविन्द लाल रजक, आदित्य पासवान,सुनील कुमार सिंह, गुरूदयाल सिंह, शशि भूषण कुमार, प्रदुम्न कुमार, साधना रजक,मधुरेन्द्र कुमार, हसीब अनवर, वसीम अहमद,राजेन्द्र चौधरी , अर्जुन पासवान, सुदय शर्मा, किशोर कुमार, विवेक यादव सहित सैकड़ों कार्यकर्ता मौजूद रहें.


आलोक कुमार

मोकामा सीट अपनी ऐतिहासिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि

 पटना.मोकामा सीट अपनी ऐतिहासिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ बाहुबलियों के प्रभाव के लिए जानी जाती है. बाहुबली नेता अनंत सिंह यहां से कई बार विधायक रह चुके हैं. गंगा नदी के दक्षिण में बसे इस क्षेत्र में घोसवरी, मोकामा और पंडारक प्रखंड के कुछ गांव शामिल हैं. आगामी 2025 बिहार विधानसभा चुनाव में मोकामा सीट पर कड़ा मुकाबला होने की उम्मीद है, क्योंकि जातीय समीकरण और बाहुबली प्रभाव इस क्षेत्र की राजनीति को आकार देते हैं.

            बिहार में चुनाव हो रहा है.कुल 243 सीटों पर चुनाव होना है.चुनाव दो चरणों में होना है.पहला चरण 6 नवंबर और दूसरा 11 नवंबर हो है.चुनाव परिणाम 14 नवंबर को आएगा.बिहार के लोगों की नजर मोकामा विधानसभा पर जा ठीक गयी है.भूमिहार बहुल मोकामा विधानसभा सीट पर इस बार दो बाहुबलियों की भिड़ंत होने वाली है. मोकामा के छोटे सरकार जदयू से चुनाव लड़ रहे हैं, तो सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी ने राजद के टिकट पर परचा भर दिया है. चुनाव भले वीणा लड़ रहीं हों, लेकिन मुकाबला अनंत सिंह बनाम सूरजभान सिंह ही बताया जा रहा है.अब दोनों बाहुबलि पसंद नहीं करते हैं कि बाहुबलि  कहा जाए.अब जनता ही बाहुबली है.

        बिहार विधानसभा चुनाव में मोकामा विधानसभा क्षेत्र की अलग अहमियत होती है. मोकामा विधानसभा क्षेत्र और ‘बाहुबली’ अनंत सिंह राजनीतिक रूप से एक-दूसरे के पर्याय माने जाते हैं. इस बार ‘छोटे सरकार’ को उनके ही गढ़ में शिकस्त देने के लिए वीणा देवी मैदान में तर गयीं हैं. वीणा देवी ‘बाहुबली’ सूरजभान सिंह की पत्नी हैं. वह कहते हैं कि जनता ने एक बार मौका दिया, तो वह मोकामा की तस्वीर बदल देंगी. ठीक वैसे ही, जैसे अपने पति सूरजभान सिंह के व्यक्तित्व को बदल दिया.

  मोकामा विधानसभा क्षेत्र दिलीप सिंह का क्षेत्र रहा है.अनंत सिंह के भाई दिलीप सिंह 1990 से एकतरफा चुनाव जीतते थे.उनको बाहुबलि  सूरजभान सिंह ने 2000 में पराजित कर बिहार विधानसभा में पहुंचे.उसके बाद सूरजभान सिंह 2004 में उत्तर प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़े और लोकसभा में पहुंचे.बाहुबलि अनंत सिंह 2005 में बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े और विधायक बन गए.तब से अनंत सिंह का सीट बनकर रह गया.लोकसभा चुनाव के एक साल बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव 2020 में अनंत सिंह उर्फ छोटे सरकार ने राजद के टिकट पर मोकामा सीट पर जीत दर्ज की थी. वर्ष 2022 में एक आपराधिक मामले में सजा होने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त हो गयी. इसके बाद उनकी पत्नी नीलम देवी ने उपचुनाव जीता और बाद में जदयू में शामिल हो गयी. इस बार अनंत सिंह जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. 2025 में खुद अनंत सिंह मैदान में हैं.उनके सामने सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी चुनौती दे रही हैं.


आलोक कुमार

बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

इस त्याग ने बेटी को यह सोचने पर विवश किया

 त्याग और अनुशासन का मौन स्तंभ

पटना.1909 में जब सोनोरा स्मार्ट डोड ने मदर्स डे पर एक उपदेश सुना, तो उनके मन में यह प्रश्न उठा कि पिताओं के लिए भी कोई दिन क्यों न हो? माँ के प्रेम की तरह पिता का समर्पण भी तो समान रूप से आदरणीय है। इसी भाव से उन्होंने फादर्स डे की नींव रखी।उनकी प्रेरणा के केंद्र में उनके अपने पिता विलियम जैक्सन स्मार्ट थे — गृह युद्ध के एक सैनिक, जिन्होंने पत्नी के निधन के बाद छह बच्चों का पालन-पोषण अकेले किया.

    इस त्याग ने बेटी को यह सोचने पर विवश किया कि पिता के मौन संघर्ष को भी समाज की मान्यता मिलनी चाहिए।उनके अथक प्रयासों का परिणाम था — 19 जून 1910, जब स्पोकेन, वाशिंगटन में पहला फादर्स डे मनाया गया. लेकिन इसे आधिकारिक मान्यता मिलने में लंबा समय लगा. अंततः 1972 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इसे अमेरिका का राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया.आज भारत सहित अनेक देशों में यह पर्व जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है. 2025 में यह दिन 15 जून को पड़ा.वहीं, कुछ यूरोपीय देशों में इसे 19 मार्च को मनाने की परंपरा है.

     हाल में कलकत्ता महाधर्मप्रांत में भी इस दिवस का उत्साह देखा गया.सेंट पॉल चर्च, कमर चौकी में 28 अक्टूबर 2025 को फादर्स डे समारोह आयोजित हुआ. समुदाय ने अपने पिताओं के प्रति सम्मान और कृतज्ञता प्रकट की.फिर भी, कुछ लोगों ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या इस अवसर की व्यापकता पूरे महाधर्मप्रांत तक पहुंच पा रही है? शिवचरण हांसदा ने चिंता जताई कि कुछ चुनिंदा चर्चों तक ही गतिविधियां सीमित हैं.दरअसल, फादर्स डे केवल उत्सव नहीं, बल्कि उस मौन शक्ति का सम्मान है जो परिवार को थामे रखती है. पिता अक्सर भावनाएँ नहीं जताते, पर हर जिम्मेदारी को निभाने में वे उदाहरण बन जाते हैं. समय है कि हम उस मौन त्याग को भी मुखर सम्मान दें — क्योंकि पिता का प्रेम दिखता नहीं, पर हर सफलता के पीछे उसका हाथ होता है.

आलोक कुमार

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

ढोरी माता तीर्थालय में उमड़ी श्रद्धा की भीड़, प्रेम और एकता का संदेश

 



ढोरी माता तीर्थालय में उमड़ी श्रद्धा की भीड़, प्रेम और एकता का संदेश

जारंगडीह.झारखंड के जारंगडीह स्थित ढोरी माता तीर्थालय में 69वां वार्षिक समारोह बड़े श्रद्धा और उत्साह के साथ संपन्न हुआ. रांची महाधर्मप्रांत के अंतर्गत आने वाले गुमला धर्मप्रांत के धर्माध्यक्ष बिशप लिनुस पिंगल एक्का इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे. उनके साथ हजारीबाग धर्मप्रांत के बिशप आनंद जोजो भी उपस्थित रहे.
    समारोह की शुरुआत अतिथि धर्माध्यक्ष के पादुका छाजन और भक्ति गीतों के साथ हुई. प्रवेश गान, नृत्य, दया याचना, महिमा गान, बाइबल जुलूस, चढ़ावा और स्तुति गान जैसे भक्ति गीतों की मनमोहक प्रस्तुतियाँ संत एंथोनी और कार्मेल स्कूल, करगली की छात्राओं एवं धर्म बहनों द्वारा दी गईं.
   मुख्य याजक के रूप में बिशप लिनुस पिंगल एक्का तथा धर्माध्यक्ष आनंद जोजो के नेतृत्व में पवित्र मिस्सा समारोह का आयोजन किया गया. देश-विदेश से आए हजारों श्रद्धालुओं ने इसमें भाग लिया और ढोरी माता के प्रति अपनी गहरी आस्था व्यक्त की.धर्माध्यक्षों ने अपने प्रवचन में प्रेम, सेवा और सामाजिक एकता पर विशेष बल दिया. उन्होंने कहा कि “ढोरी माता आस्था, दया और मानवता की प्रतीक हैं। ईश्वर प्रेम का यही संदेश हमें एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील और सहयोगी बनाता है.
    ”भक्ति गीतों, संगीत और प्रार्थनाओं से पूरा वातावरण भक्तिमय बना रहा. श्रद्धालुओं ने विश्व शांति और मानवीय सद्भाव की कामना की. आयोजन की व्यवस्था ढोरी माता समिति और स्थानीय श्रद्धालुओं के सहयोग से की गई थी.
    अनुष्ठान में फादर सिरियक जोसेफ, फादर माइकल लकड़ा, फादर नोर्बर्ट लकड़ा, फादर सुरेन्द्र पॉल, फादर अल्बर्ट केरकेट्टा, फादर अनुरंजन टोप्पो, फादर मुक्ति मिंज, फादर प्रमोद कुजूर, फादर संतोष टोपनो और फादर एमानुएल टेटे सहित अनेक पुरोहित शामिल हुए.
     दो दिवसीय इस वार्षिक महोत्सव में झारखंड के विभिन्न जिलों बोकारो, रांची, धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा और पलामू  के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचे. श्रद्धालुओं का विश्वास है कि जो भी सच्चे मन से ढोरी माता के चरणों में मन्नत मांगता है, उसकी कामना अवश्य पूरी होती है.ढोरी माता तीर्थ केवल आस्था का नहीं, बल्कि प्रेम, करुणा और मानवता के संगम का स्थल बन चुका है.

आलोक कुमार

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

राजनीति में बाहुबल और जनाधार

मोकामा विधानसभा :


बाहुबलियों की परंपरा, जनता की परीक्षा

पटना.बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही एक बार फिर मोकामा सीट सुर्खियों में है. 243 सीटों वाले इस राज्य में दो चरणों में चुनाव होने हैं — पहला चरण 6 नवंबर और दूसरा 11 नवंबर को, जबकि परिणाम 14 नवंबर को घोषित किए जाएंगे. लेकिन बिहार की निगाहें मोकामा पर टिकी हैं, जहाँ राजनीति, जातीय समीकरण और बाहुबल का अनोखा संगम देखने को मिलता है.गंगा नदी के दक्षिण तट पर स्थित मोकामा क्षेत्र में घोसवरी, मोकामा और पंडारक प्रखंड के कुछ गांव शामिल हैं. यह सीट अपने इतिहास और बाहुबली नेताओं के प्रभाव के लिए प्रसिद्ध रही है. यहाँ की राजनीति में बाहुबल और जनाधार का अद्भुत संतुलन हमेशा चर्चा में रहा है.

        बाहुबलियों की परंपरा और मुकाबले की विरासत मोकामा का नाम आते ही अनंत सिंह उर्फ "छोटे सरकार" की याद आती है. यह सीट लंबे समय से उनके नाम से जुड़ी रही है. लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में हालात पहले जैसे नहीं हैं.इस बार मैदान में दो बाहुबलियों का आमना-सामना होने जा रहा है — एक ओर जदयू के उम्मीदवार अनंत सिंह, तो दूसरी ओर राजद से सूरजभान सिंह की पत्नी वीणा देवी.दिलचस्प यह है कि अब दोनों ही पक्ष “बाहुबली” कहलाना पसंद नहीं करते.उनका कहना है कि असली शक्ति जनता के पास है, और वह आज की असली बाहुबली है.

           लेकिन इतिहास बताता है कि मोकामा की राजनीति में बाहुबली प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.इतिहास में झाँके तो...मोकामा विधानसभा सीट कभी दिलीप सिंह का गढ़ हुआ करती थी.1990 के दशक में वे लगातार चुनाव जीतते रहे. लेकिन वर्ष 2000 में सूरजभान सिंह ने उन्हें हराकर इस गढ़ में सेंध लगाई. सूरजभान सिंह बाद में 2004 में लोकसभा पहुंचे, जबकि 2005 में अनंत सिंह ने विधानसभा में दस्तक दी और तब से यह सीट उनके नाम से जानी जाने लगी.

            2020 के विधानसभा चुनाव में अनंत सिंह ने राजद के टिकट पर जीत हासिल की, लेकिन 2022 में एक आपराधिक मामले में सजा होने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई.इसके बाद उनकी पत्नी नीलम देवी ने उपचुनाव में जीत दर्ज की और बाद में जदयू में शामिल हो गईं. अब 2025 में खुद अनंत सिंह जदयू से मैदान में हैं.नया मुकाबला, पुरानी रंजिश इस बार वीणा देवी मैदान में हैं, लेकिन मुकाबला अनंत सिंह बनाम सूरजभान सिंह ही माना जा रहा है. वीणा देवी कहती हैं — “जनता ने एक बार मौका दिया तो मोकामा की तस्वीर बदल देंगे, जैसे मैंने अपने पति सूरजभान सिंह का जीवन बदल दिया.”

     दूसरी ओर, अनंत सिंह का दावा है कि मोकामा की जनता “छोटे सरकार” के साथ है और विकास के मुद्दे पर उन्हें फिर से मौका देगी.जातीय समीकरण और जनता की भूमिका भूमिहार बहुल इस क्षेत्र में जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक रहे हैं.लेकिन अब यह लड़ाई केवल जाति या बाहुबल की नहीं, बल्कि प्रभाव और छवि की हो गई है.जनता तय करेगी कि पुराने राजनीतिक प्रतीकों को आगे बढ़ाना है या नई दिशा देनी है.


आलोक कुमार

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

“खरना” छठ महापर्व का दूसरा और अत्यंत पवित्र दिन

 पटना.“खरना” छठ महापर्व का दूसरा और अत्यंत पवित्र दिन आस्था का आलोक : जब घर-आंगन में उतरता है ‘खरना’ का उजासरविवार की सांझ है.आसमान पर हल्की केसरिया आभा फैली हुई है.दिनभर की भागदौड़, बाजार की रौनक, घाटों की तैयारियां और घरों में उत्साह की हलचल—सब कुछ एक अदृश्य आस्था की डोर से बंधा प्रतीत होता है. आज खरना है—छठ महापर्व का दूसरा दिन. वही दिन जब सूर्यास्त के साथ व्रती अपने निर्जला व्रत की शुरुआत करती हैं.

     मैं खड़ा हूँ पटना के दीघा घाट की ओर जाने वाली एक गली में. हर घर से धुएँ की


पतली लकीरें उठ रही हैं.धूप, कपूर, अरवा चावल और गुड़ की सुगंध से पूरा वातावरण आध्यात्मिक हो उठा है. लगता है जैसे पूरा शहर श्रद्धा में डूब गया हो—हर चेहरा, हर दीया, हर अर्घ्य पात्र सूर्यदेव की प्रतीक्षा में शांत और विनम्र है. खरना : आस्था का अनुशासन, शुद्धता का पर्वछठ महापर्व के चार दिन होते हैं—नहाय-खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य.खरना इन चारों में सबसे संयमित और अनुशासित दिन है. यह दिन भक्ति की शुरुआत नहीं, बल्कि भक्ति के परिपक्व रूप का उद्घोष है. व्रती सुबह से जल भी ग्रहण नहीं करते.पूरे दिन बिना अन्न-जल के रहते हैं और संध्या बेला में शुद्ध प्रसाद—गुड़ की खीर, रोटी और केला—से पूजा करते हैं.

   लेकिन ‘खरना’ सिर्फ व्रत का नियम नहीं है; यह मन की शुद्धि का विधान है.यह वह क्षण है जब व्यक्ति अपने भीतर की अशुद्धियों को त्याग कर आत्मा के स्वच्छ जल में स्नान करता है. सूर्य अस्त होते हैं, पर भीतर एक नया सूरज उगता है—आत्मबल का, धैर्य का, समर्पण का.आंखों देखी दृश्यावली : एक संध्या का साक्षात्कारघड़ी में शाम के पाँच बजे हैं.व्रती महिलाएँ पीत वस्त्र धारण कर चुकी हैं. कुछ के माथे पर सिंदूर की लकीर मांग के पार तक खिंची हुई है.रसोई में तांबे की हांडी में दूध उबल रहा है.उस पर रखी है काठ की कलछी—जो हल्की भाप से चमक रही है.

रसोई में प्रवेश करने वाला कोई भी व्यक्ति जूता-चप्पल बाहर ही उतार देता है. यह रसोई अब पूजा स्थल है.एक ओर लकड़ी की आंच पर चावल पक रहा है—अरवा चावल, जो बिना नमक और बिना मसाले के.दूसरी ओर गुड़ की खीर बन रही है—कद्दू की मिठास और दूध की गाढ़ी लहरों से भरी.कहीं- कहीं केले के पत्तों पर प्रसाद रखा जा रहा है, तो कहीं मिट्टी के चूल्हे पर अंतिम आंच में चपाती सेंकी जा रही है—रोटी नहीं, “ठेकुआ” की तरह गोल, परंतु स्वाद में साधना से भरी.बाहर आंगन में बच्चे दीये सजा रहे हैं.एक बुजुर्ग महिला धूपबत्ती में आग लगाते हुए कहती हैं—“खरना के रात अइसन होखेला जइसे धरती पे सुरज के किरन उतर आइल हो.”

उनके शब्दों में जो चमक है, वह किसी ग्रंथ की पवित्रता से कम नहीं.सूर्यदेव की प्रतीक्षा : अस्त होते सूरज की ओर निहारती आंखेंसंध्या करीब आती है.घरों की छतों से लोग पश्चिम की ओर निहारने लगते हैं.गंगा किनारे व्रती अपने थाल सजाकर बैठी हैं.पीत वस्त्रों में, माथे पर हल्का चंदन और हाथों में दूध का अर्घ्य.अस्ताचलगामी सूर्य जैसे धरती से विदा नहीं ले रहा, बल्कि व्रती के आस्था के दीप में स्वयं समा रहा है.

   अर्घ्य देते वक्त वह दृश्य अवर्णनीय होता है—

जब व्रती के नेत्रों में गंगा का जल झिलमिलाता है और होंठों पर एक ही प्रार्थना होती है:

 “सूर्यदेव, हमारे घर-आंगन में शांति, सुख और स्वच्छता बनी रहे.”

   उस क्षण लगता है जैसे मनुष्य और प्रकृति के बीच कोई संवाद पुनः स्थापित हो गया हो.

गंगा की लहरें धीमे-धीमे उस संवाद की लय पर नाच उठती हैं.प्रसाद : स्वाद से अधिक भावनाखरना का प्रसाद—गुड़ की खीर, रोटी और केला—साधारण दिखता है, पर इसका अर्थ असाधारण है.

इसमें स्वाद नहीं, तप है; मिठास नहीं, समर्पण है.

जब प्रसाद बनता है, तब घर का हर सदस्य अपनी सांस रोक लेता है कि कोई अशुद्धि न हो जाए.

इस दौरान बोलचाल भी धीमी हो जाती है, जैसे किसी मंदिर में मौन साधना चल रही हो.

   रात के आठ बजे व्रती पूजा संपन्न कर प्रसाद ग्रहण करती हैं.पहला निवाला सूर्यदेव को अर्पित होता है, दूसरा जल को, और तीसरा—वह स्वयं ग्रहण करती हैं.

यह पहला अन्न का कौर उस व्रत का आरंभ है जो अगले दो दिनों तक निरंतर चलेगा—बिना जल, बिना अन्न.

    इसके बाद यही प्रसाद परिवार और पड़ोस में बांटा जाता है.बच्चे दौड़ते हैं, महिलाएँ ‘जय छठी मइया’ का जयघोष करती हैं, और पूरा मोहल्ला प्रसाद की मिठास में डूब जाता है.यह बाँटने का भाव ही तो छठ की आत्मा है—अपने सुख को दूसरों के साथ साझा करने का अनुष्ठान.रात का उजास : जब दीपों में बहती है श्रद्धा की नदिया रात उतर आई है.दीघा, सोनपुर, आरा, समस्तीपुर—हर जगह से एक जैसी झिलमिलाहट उठती है.घरों की छतों पर दीपों की कतारें हैं.गंगा के घाट पर जलते दीप जैसे तारों की परछाई बन गए हों.

  हवा में लोबान की खुशबू है, और आसमान में चांदनी का कोमल प्रकाश.हर किसी के मन में संतोष है कि व्रत का सबसे कठिन दिन सफलतापूर्वक पूरा हुआ.कुछ महिलाएँ अपने बच्चों के माथे पर हाथ रखती हैं और कहती हैं—“छठी मइया सबके घर सुख-शांति देइथु।”इन शब्दों में न आडंबर है, न आग्रह—बस आस्था की सादगी है. सांस्कृतिक अर्थ : खरना का सामाजिक विज्ञानखरना केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अनुशासन का प्रतीक है.

यह दिन हमें सिखाता है कि शुद्धता केवल बाहरी नहीं, भीतर की भी होती है.

जब हम प्रसाद बनाते समय अपने विचारों को संयमित रखते हैं, तब वह क्रिया ध्यान बन जाती है.यह व्रत हमें सिखाता है—संतुलन: भूख और संयम का समन्वय.समानता: हर घर में एक जैसा प्रसाद, एक जैसी थाली, एक जैसी प्रार्थना.साझेदारी: प्रसाद का वितरण सामाजिक एकता की मिसाल है.खरना का प्रसाद हर जाति, वर्ग और धर्म के लोगों में बाँटा जाता है.यह वह क्षण होता है जब समाज के कृत्रिम विभाजन मिट जाते हैं.हर किसी के हाथ में वही खीर, वही रोटी—और वही आशीर्वाद. प्रकृति के साथ संवाद : छठ का पर्यावरणीय संदेशआज जब दुनिया पर्यावरण संकट से जूझ रही है, छठ का खरना हमें बताता है कि प्रकृति की पूजा ही जीवन की रक्षा है.खरना में मिट्टी के चूल्हे, केले के पत्ते, पीतल या कांसे के बर्तन, और गंगाजल का उपयोग—सब पर्यावरण-संवेदनशील हैं.यह पर्व सिखाता है कि पूजा का अर्थ भव्यता नहीं, बल्कि सामंजस्य है.जब व्रती जल में खड़ी होकर सूर्य को नमन करती है, तब वह केवल देवता को नहीं, बल्कि प्रकृति को धन्यवाद देती है—उस सूर्य को जो ऊर्जा देता है, उस जल को जो जीवन देता है, और उस धरती को जो अन्न देती है.व्यक्तिगत अनुभूति : एक दर्शक की चेतनाखरना की रात में जब मैं घाट से लौट रहा था, गली के मोड़ पर एक बूढ़ी अम्मा मिलीं।

उन्होंने पूछा—“बाबू, अर्घ्य देखलु?”

मैंने कहा—“हां अम्मा, देख लिया।”

वह मुस्कुराईं और बोलीं—

 “देखा ना बाबू, छठी मइया सबके दिल में बसली हैं—करे वाला भी खुश, देखे वाला भी धन्य.”


उनके ये शब्द मुझे भीतर तक छू गए.वाकई, छठ का आकर्षण यही है कि यह केवल व्रती का पर्व नहीं, बल्कि समाज का उत्सव है.

हर व्यक्ति, चाहे वह श्रद्धालु हो या दर्शक, किसी न किसी रूप में इससे जुड़ जाता है.

 सूर्य के प्रतीक में जीवन का दर्शनछठ में सूर्य केवल देवता नहीं, बल्कि जीवन का तार्किक प्रतीक हैं.खरना की बेला में अस्त सूर्य को अर्घ्य देना हमें सिखाता है कि जीवन का हर अंत एक नई शुरुआत है.जैसे सूर्य डूबता है पर लौटता भी है, वैसे ही हर कठिनाई के बाद प्रकाश आता है.यह पर्व धैर्य की शिक्षा देता है—कि अंधेरा चाहे जितना गहरा हो, अगर मन में श्रद्धा का दीप जलता रहे, तो भोर निश्चित है.और खरना वही दीप है—जो रात की शुरुआत में उम्मीद की लौ जलाता है. अंतिम आलोक : जब भक्ति और विज्ञान मिलते हैंखरना में जो संयम है, वह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि शरीर और मन के संतुलन का वैज्ञानिक रूप है.

दिनभर का उपवास शरीर को शुद्ध करता है, और सूर्यास्त के बाद शुद्ध अन्न से ऊर्जा मिलती है.

यह व्रत डिटॉक्सिफिकेशन और मेडिटेशन का पारंपरिक भारतीय संस्करण है.व्रती महिलाएँ जब गंगा में उतरती हैं, तो उनका ध्यान सूर्य पर नहीं, अपने भीतर के आलोक पर होता है.यह आत्म-चिंतन का क्षण है—जहां धर्म और विज्ञान, दोनों एक सूत्र में बंध जाते हैं उपसंहार : खरना की रात, आत्मा की शांतिरात गहराती जा रही है.दीघा घाट की लहरों पर दीप तैर रहे हैं.उनकी लौ कभी थरथराती है, कभी स्थिर हो जाती है.यह लौ, व्रती के हृदय में जलती उस अग्नि का प्रतीक है, जो अगले दो दिन तक अडिग रहेगी.खरना की रात के बाद जब सुबह होती है, तो सूर्य थोड़ा और उजला लगता है.मानो उसने भी व्रती की श्रद्धा से नया तेज पा लिया हो.छठ का खरना हमें याद दिलाता है—

कि आस्था केवल पूजा नहीं, जीवन जीने की शैली है.यह दिन हमें संयम, शुद्धता, अनुशासन और साझेदारी की उस परंपरा से जोड़ता है, जिसने सदियों से भारतीय संस्कृति को जीवित रखा है.आज जब आधुनिकता के शोर में आत्मा की आवाज़ दबने लगी है, तब भी खरना का यह मौन व्रत हमें भीतर झांकने की प्रेरणा देता है।

यह कहता है—“जहाँ शुद्धता है, वहीं देवत्व है; जहाँ संयम है, वहीं सूर्य का प्रकाश है.”

 समापन पंक्तिखरना की इस आंखों देखी रात ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि

आस्था केवल प्रार्थना नहीं, बल्कि अनुभव है —

और जब अनुभव में प्रेम, अनुशासन और शुद्धता मिल जाती है,

तभी धरती पर सूर्य उतर आता है.


आलोक कुमार

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

आस्था, संस्कृति और स्वच्छता का महायज्ञ

 आस्था, संस्कृति और स्वच्छता का महायज्ञ

प्रस्तावना : सूर्योपासना की अनोखी परंपरा भारतवर्ष की मिट्टी में जितनी विविधताएं हैं, उतनी ही उसमें आस्थाओं की गहराई भी है. हर प्रदेश, हर जनपद, हर बोली अपने भीतर लोकजीवन का एक अध्याय समेटे हुए है. इन्हीं अध्यायों में एक उज्ज्वल पृष्ठ है — छठ महापर्व. यह पर्व केवल पूजा-अर्चना का अवसर नहीं, बल्कि मानव, प्रकृति और संस्कृति के मध्य संतुलन का अनुपम प्रतीक है. 

बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला यह पर्व आज देश की सीमाओं को लांघकर विश्व के हर कोने तक पहुँच चुका है. जहाँ-जहाँ भोजपुरी, मैथिली, मगही या हिंदी बोलने वाले बसे हैं, वहाँ-वहाँ डूबते और उगते सूर्य की आराधना में डूबे लोगों की झिलमिलाती आरतियाँ दिखाई देते हैं.

     छठ केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि पर्यावरण, श्रम, अनुशासन और समर्पण का जीवंत उत्सव है.यह पर्व समाज को वह सीख देता है, जो शायद किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं मिलती — शुद्धता ही पूजा है, निष्ठा ही साधना है और सूर्य ही साक्षात् जीवन है.

    छठ का ऐतिहासिक और पौराणिक आधार छठ पर्व की जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं. ऋग्वेद में ‘सूर्य उपासना’ के अनेक मंत्र मिलते हैं. वैदिक ऋषि सूर्य को जीवनदायिनी शक्ति मानते थे, जो पृथ्वी पर प्रकाश, ऊर्जा और जीवन का संचार करती है. यह परंपरा कालांतर में लोकजीवन से जुड़ती गई और छठ का स्वरूप सामने आया.पौराणिक मान्यता है कि त्रेतायुग में जब भगवान राम अयोध्या लौटे, तब माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्यदेव की आराधना की थी.उन्होंने नदी के किनारे उपवास रखकर सूर्य को अर्घ्य दिया. इसी से यह पर्व आरंभ हुआ माना जाता है.

     महाभारत काल में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है। कर्ण, को सूर्यपुत्र थे, प्रतिदिन सूर्यदेव की पूजा करते और उन्हें अर्घ्य अर्पित करते थे. माना जाता है कि सूर्य की उपासना से ही कर्ण को अपार तेज और शक्ति प्राप्त हुई थी.व्रत की वैज्ञानिकता और अनुशासन छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसका वैज्ञानिक और अनुशासित स्वरूप है. इसमें किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि प्रकृति और पंच तत्वों की आराधना की जाती है.

       व्रती (छठव्रती) चार दिनों तक कड़े नियमों का पालन करती हैं —नहाय-खाय: पहला दिन शरीर और मन की शुद्धता का प्रतीक है. व्रती नदी या तालाब में स्नान कर घर में शुद्ध भोजन बनाती हैं.खरना: दूसरे दिन व्रती पूरे दिन निर्जल उपवास रखती हैं और शाम को गुड़-चावल की खीर और रोटी का प्रसाद ग्रहण करती हैं.संध्या अर्घ्य: तीसरे दिन व्रती पूरे दिन निर्जल रहकर शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं.प्रातः अर्घ्य: चौथे दिन सूर्योदय से पहले उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर व्रत का समापन होता है.

     यह क्रम केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आयुर्वेद और पर्यावरणीय दृष्टि से भी अद्भुत संतुलन दर्शाता है. इस दौरान शरीर विषैले तत्वों से मुक्त होता है, आत्मा अनुशासन से परिष्कृत होती है, और मन संयम से शांत होता है.सूर्य — ऊर्जा का परम स्रोत सूर्य को विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं ने जीवनदायिनी शक्ति माना है.मिस्र की सभ्यता में ‘रा’, जापान में ‘अमातेरासु’, और भारत में ‘सूर्यदेव’ — ये सभी एक ही चेतना के प्रतीक हैं. छठ पर्व उसी चेतना की उपासना है.

            सूर्य की किरणें हमारे शरीर को विटामिन-डी प्रदान करती हैं, जो हड्डियों और रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए आवश्यक है. सुबह की किरणें शरीर के प्रत्येक कोशिका को सजीव करती हैं. इसलिए छठ का अर्घ्य अस्ताचलगामी और उदीयमान सूर्य दोनों को दिया जाता है — यानी जीवन के हर पक्ष, हर अवस्था को समान सम्मान.

महिलाओं की भूमिका : श्रद्धा की साक्षात मूर्ति छठ पर्व का सबसे भावनात्मक पहलू है — स्त्री का त्याग और तपस्या। यह व्रत प्रायः महिलाएं ही करती हैं, हालांकि पुरुष भी इसमें पीछे नहीं.

चार दिनों तक निराहार रहकर, ठंडे जल में खड़ी होकर, घंटों तक ध्यानमग्न रहना किसी तपस्या से कम नहीं.यह पर्व नारी-शक्ति के असीम धैर्य, विश्वास और शक्ति का दर्पण है. व्रती महिलाएं न केवल अपने परिवार के लिए वरदान मांगती हैं, बल्कि पूरे समाज की समृद्धि, आरोग्यता और उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना करती हैं.

लोक संस्कृति का उत्सव : गीत, गंध और गंगा की लहरें छठ पर्व केवल पूजा का अनुष्ठान नहीं, यह लोकगीतों, संगीत और सादगी का पर्व है। जब घाटों पर “केलवा जे फरेला घवद से ओ पिया” या “उग हो सूरज देव” जैसे गीत गूंजते हैं, तो पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है.यह गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि पीढ़ियों की स्मृति, मातृत्व की पुकार और आस्था की गूंज हैं.मिट्टी के दीये, बाँस की टोकरी, ठेकुआ, कसार और फल — इन सबका अपना सांस्कृतिक महत्व है.ये लोकजीवन को प्रकृति से जोड़ते हैं.छठ और प्रवासी समाज आज छठ बिहार या पूर्वांचल तक सीमित नहीं रहा.मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, सूरत, चेन्नई से लेकर दुबई, लंदन, सिडनी और न्यूयॉर्क तक इसके आयोजन होने लगे हैं. प्रवासी भारतीयों के लिए यह पर्व अपनी जड़ों से जुड़ने का भावनात्मक पुल बन गया है.

शहरों की बहुमंजिली इमारतों की छतों पर, या समुद्र तटों पर, जब लोग पीले वस्त्रों में सूर्य की आराधना करते हैं, तो वह केवल पूजा नहीं, बल्कि अपने गाँव-घाट, अपनी मिट्टी और अपनी माँ की याद का प्रतीक होता है।पर्यावरण और स्वच्छता का संदेश छठ पर्व का सबसे बड़ा सामाजिक संदेश है — स्वच्छता ही श्रद्धा है. इस पर्व से पहले गाँव-शहर के तालाब, नदी और सड़कों की सफाई होती है. लोग अपने घरों और मोहल्लों को धो-पोंछकर सजाते हैं. छठ व्रत यह सिखाता है कि प्रकृति की पूजा तभी संभव है जब हम कैसे स्वच्छ रखें.

             आज जो विश्व प्रदूषण और जल-संकट से जूझ रहा है, तब छठ का यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है।आर्थिक दृष्टि से छठ का प्रभाव छठ केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण अवसर है.मिट्टी के बर्तन बनाने वाले, बांस की टोकरी बनाने वाले, फल-सब्जी विक्रेता, वस्त्र और पूजा सामग्री बेचने वाले — सभी के लिए यह पर्व आय का प्रमुख स्रोत बन जाता है.गाँवों में कुटीर उद्योगों का पुनर्जीवन इस पर्व से देखा जा सकता है.

          यह अपने आप में आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता का मॉडल है.सामाजिक समरसता और लोक एकता छठ पर्व में कोई जात-पात, ऊँच-नीच या वर्ग भेद नहीं रहता.गाँव का अमीर हो या गरीब, सब एक ही घाट पर खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं.यह पर्व सामाजिक समानता का प्रतीक है — जहाँ भक्ति ही पहचान है और सत्य ही धर्म।आधुनिक संदर्भों में छठ की चुनौतियाँ तेजी से बदलते समय में, जब जीवन की गति कृत्रिम होती जा रही है, छठ जैसे पर्वों के सामने भी कई चुनौतियां हैं.

    नदियों का प्रदूषण, प्लास्टिक का अत्यधिक उपयोग, और नगरीकरण के कारण प्राकृतिक घाटों का अभाव — ये सब इस महापर्व की पवित्रता को चुनौती दे रहे हैं.इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम छठ को केवल धार्मिक अनुष्ठान न मानें, लेकिन पर्यावरणीय आंदोलन के रूप में भी देखें. हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह नदी, तालाब और पर्यावरण की रक्षा करें, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी छठ की वही दिव्या महसूस कर सकें.

छठ : लोकजीवन में स्त्री-पुरुष की समान भागीदारी भले ही व्रत करने वाली महिला प्रमुख रूप से केंद्र में होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस पर्व में समान भूमिका निभाते हैं.पूरे परिवार का सहयोग, प्रसाद बनाने में मदद, घाट सजाने में श्रमदान — यह सब मिलकर पारिवारिक एकता और सामूहिक जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.

        छठ का यह स्वरूप भारतीय परिवार की उस परंपरा को पुनः जीवित करता है, जिसमें घर ही मंदिर और परिवार ही समाज होता है.सांस्कृतिक निर्यात : विश्व में बिहार की पहचान छठ ने बिहार की पहचान को नया आयाम दिया है.

         आज न्यू जर्सी, मेलबर्न, दुबई, मस्कट, सिंगापुर, लंदन, मॉरीशस तक इस पर्व का आयोजन होता है.विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने बच्चों को यह सिखाते हैं कि यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि संस्कार और जीवनशैली है.विश्व स्तर पर यह पर्व भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का उदाहरण बन चुका है.छठ और नारी सशक्तिकरण इस पर्व में नारी केवल पूजा करने वाली नहीं, बल्कि संरक्षक और नेतृत्वकर्ता की भूमिका में होती है.सफाई से लेकर आयोजन तक, हर स्तर पर महिला नेतृत्व करती हैं.उनकी एकाग्रता, अनुशासन और संयम समाज को यह संदेश देता है कि नारी शक्ति यदि संकल्प कर ले, तो असंभव कुछ भी नहीं.यह पर्व स्त्री के भीतर छिपे ऋषिता की पहचान है.लोक कला और साहित्य में छठ छठ का प्रभाव लोक कला, चित्रकला, नृत्य और साहित्य तक फैला हुआ है.

           मधुबनी चित्रों में सूर्य की आराधना के दृश्य, भोजपुरी कविताओं में व्रती के गीत, और हिंदी साहित्य में आस्था के प्रतीक के रूप में छठ — ये सभी इस पर्व की सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाते हैं.भोजपुरी सिनेमा और गीतों ने भी इसे जन-जन तक पहुँचाया है, जिससे यह पर्व लोकधारा से राष्ट्रीय धारा में परिवर्तित हुआ है.आस्था और विज्ञान का संगम छठ पर्व का हर नियम विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है.सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अर्घ्य देने से शरीर की कोशिकाएं सौर ऊर्जा को ग्रहण करती हैं.निर्जल उपवास शरीर के भीतर विषैले तत्वों को निकालता है.प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग पर्यावरण-संरक्षण को बढ़ावा देता है. इस प्रकार यह पर्व आस्था और विज्ञान के बीच संतुलन का अद्भुत उदाहरण है.

निष्कर्ष : छठ एक जीवन-दर्शन छठ केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है.यह सिखाता है कि जीवन में शुद्धता, अनुशासन, संयम और प्रकृति के प्रति सम्मान ही सच्ची भक्ति है.जब डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो यह जीवन के संघर्षों के प्रति आभार है;और जब उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो यह भविष्य की आशा का प्रतीक है.आज के भौतिक युग में, जहां आडंबर और उपभोग का अंधकार फैलता जा रहा है, छठ महापर्व एक दीपक की तरह है — जो हमें याद दिलाता है कि आस्था केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हमारे कर्म, हमारी निष्ठा और हमारे पर्यावरण की रक्षा में है.यह पर्व हमें जोड़ता है — मनुष्य से मनुष्य को, मनुष्य से प्रकृति को, और मनुष्य से परमात्मा को।समापन विचार जब घाटों पर डूबते सूर्य की सुनहरी किरणें जल में झिलमिलाती हैं, व्रती के हाथ folded होकर प्रार्थना में उठते हैं, और हवा में गूंजता है —

"छठ मइया के जयकारा, उग हो सूरज देव!" — तब लगता है मानो सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक ही सुर में कह रहा हो — “यह आस्था नहीं, यह जीवन का उत्सव है.”


आलोक कुमार 

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

छठ पर्व को लेकर जिला पदाधिकारी की अध्यक्षता में समीक्षा बैठक सम्पन्न

 छठ घाटों पर स्वच्छता, प्रकाश और सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था सुनिश्चित करें : जिला पदाधिकारी

छठ व्रतियों को किसी प्रकार की असुविधा न हो, इसका रखें विशेष ध्यान

छठ व्रतियों की सुविधा के मद्देनजर चेंजिंग रूम की करें व्यवस्था

छठ पर्व को लेकर जिला पदाधिकारी की अध्यक्षता में समीक्षा बैठक सम्पन्न

बेतिया .छठ महापर्व को लेकर जिला प्रशासन पश्चिम चम्पारण पूरी तरह से सक्रिय हो गया है। जिला पदाधिकारी, श्री धर्मेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में आज वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से एक समीक्षा बैठक आयोजित की गई, जिसमें छठव्रती महिलाओं और श्रद्धालुओं की सुविधा एवं सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के निर्देश दिए गए.

     जिला पदाधिकारी ने सभी अधिकारियों को निर्देशित किया कि जिले के सभी छठ घाटों की सफाई, प्रकाश व्यवस्था, जल निकासी, पेयजल आपूर्ति, विधि-व्यवस्था एवं सुरक्षा व्यवस्था की तैयारियां समय पर पूरी कर ली जाएँ. उन्होंने कहा कि घाटों तक जाने वाले मार्गों की मरम्मत, कीचड़ की सफाई और पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए ताकि श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की परेशानी न हो.

       उन्होंने कहा कि छठ महापर्व लोक आस्था का पर्व है, इसलिए श्रद्धालुओं की सुविधा और सुरक्षा प्रशासन की सर्वोच्च प्राथमिकता है। किसी भी प्रकार की लापरवाही बर्दाश्त नहीं की जाएगी.सभी पदाधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे अपने-अपने क्षेत्रों के प्रमुख छठ घाटों का भौतिक निरीक्षण करें और सड़कों, नालियों तथा घाटों की सफाई एवं मरम्मत कार्य को सुनिश्चित करें.

     बैठक में स्वास्थ्य विभाग को घाटों एवं भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर प्राथमिक उपचार केंद्र संचालित करने के निर्देश दिए गए. वहीं विद्युत विभाग को सभी घाटों और प्रमुख स्थलों पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था करने तथा खराब तारों और पोलों की तत्काल मरम्मत का आदेश दिया गया. जिला पदाधिकारी ने सभी विभागों को आपसी समन्वय एवं सतत निगरानी बनाए रखने का निर्देश देते हुए कहा कि प्रशासन का उद्देश्य है कि जिले के सभी व्रतधारी और श्रद्धालु सुरक्षित, स्वच्छ और श्रद्धा मय वातावरण में छठ महापर्व मनाएँ.

     बैठक में नगर आयुक्त, नगर निगम बेतिया श्री लक्ष्मण तिवारी, विशेष कार्य पदाधिकारी, जिला गोपनीय शाखा, श्री सुजीत कुमार सहित सभी अनुमंडल पदाधिकारी, अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी, सभी नगर निकायों के कार्यपालक पदाधिकारी, प्रखंड विकास पदाधिकारी, अंचलाधिकारी सहित अन्य प्रशासनिक एवं पुलिस पदाधिकारी उपस्थित थे.

              छोटे सिंह ने कहा कि  सर पर्व के महत्व को देखते हुए आप से जनहित से अनुरोध पूर्वक कहना है कि पूर्व से चिन्हित छठ घाटों का निरीक्षण और अवलोकन अपने से हर-एक घाटों के साज सज्जा करने वाले कमिटी के साथ करने का कष्ट करेंगे बहुत मेहरबानी होगी.


आलोक कुमार

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

बरौली में महिलाओं की टोली ने मतदाताओं को किया जागरूक

 बरौली में महिलाओं की टोली ने मतदाताओं को किया जागरूक


बरौली.आगामी 6 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर मतदाताओं को लगातार जागरूक किया जा रहा है, ताकि मतदान के प्रतिशत को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके. इस क्रम में इस जागरूकता अभियान में महिलाओं की भी अहम भागीदारी है. जिला स्वीप कोषांग की ओर से आयोजित हो रही विभिन्न गतिविधियों में महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है. बुधवार को बरौली विधानसभा क्षेत्र के बरौली प्रखंड मुख्यालय में जीविका से जुड़ी दो दर्जन से अधिक महिलाओं ने अभियान चलाकर महिला व पुरुष मतदाताओं को जागरूक किया तथा 6 नवंबर को मतदान करने का संकल्प दिलाया. जागरूकता बैनर के साथ निकली महिलाओं ने जागरूकता से संबंधित कई नारे लगाए तथा लोगों से मतदान करने की अपील की.


आलोक कुमार