आस्था, संस्कृति और स्वच्छता का महायज्ञ
प्रस्तावना : सूर्योपासना की अनोखी परंपरा भारतवर्ष की मिट्टी में जितनी विविधताएं हैं, उतनी ही उसमें आस्थाओं की गहराई भी है. हर प्रदेश, हर जनपद, हर बोली अपने भीतर लोकजीवन का एक अध्याय समेटे हुए है. इन्हीं अध्यायों में एक उज्ज्वल पृष्ठ है — छठ महापर्व. यह पर्व केवल पूजा-अर्चना का अवसर नहीं, बल्कि मानव, प्रकृति और संस्कृति के मध्य संतुलन का अनुपम प्रतीक है. बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला यह पर्व आज देश की सीमाओं को लांघकर विश्व के हर कोने तक पहुँच चुका है. जहाँ-जहाँ भोजपुरी, मैथिली, मगही या हिंदी बोलने वाले बसे हैं, वहाँ-वहाँ डूबते और उगते सूर्य की आराधना में डूबे लोगों की झिलमिलाती आरतियाँ दिखाई देते हैं.
छठ केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि पर्यावरण, श्रम, अनुशासन और समर्पण का जीवंत उत्सव है.यह पर्व समाज को वह सीख देता है, जो शायद किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं मिलती — शुद्धता ही पूजा है, निष्ठा ही साधना है और सूर्य ही साक्षात् जीवन है.
छठ का ऐतिहासिक और पौराणिक आधार छठ पर्व की जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं. ऋग्वेद में ‘सूर्य उपासना’ के अनेक मंत्र मिलते हैं. वैदिक ऋषि सूर्य को जीवनदायिनी शक्ति मानते थे, जो पृथ्वी पर प्रकाश, ऊर्जा और जीवन का संचार करती है. यह परंपरा कालांतर में लोकजीवन से जुड़ती गई और छठ का स्वरूप सामने आया.पौराणिक मान्यता है कि त्रेतायुग में जब भगवान राम अयोध्या लौटे, तब माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन सूर्यदेव की आराधना की थी.उन्होंने नदी के किनारे उपवास रखकर सूर्य को अर्घ्य दिया. इसी से यह पर्व आरंभ हुआ माना जाता है.
महाभारत काल में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है। कर्ण, को सूर्यपुत्र थे, प्रतिदिन सूर्यदेव की पूजा करते और उन्हें अर्घ्य अर्पित करते थे. माना जाता है कि सूर्य की उपासना से ही कर्ण को अपार तेज और शक्ति प्राप्त हुई थी.व्रत की वैज्ञानिकता और अनुशासन छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसका वैज्ञानिक और अनुशासित स्वरूप है. इसमें किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि प्रकृति और पंच तत्वों की आराधना की जाती है.
व्रती (छठव्रती) चार दिनों तक कड़े नियमों का पालन करती हैं —नहाय-खाय: पहला दिन शरीर और मन की शुद्धता का प्रतीक है. व्रती नदी या तालाब में स्नान कर घर में शुद्ध भोजन बनाती हैं.खरना: दूसरे दिन व्रती पूरे दिन निर्जल उपवास रखती हैं और शाम को गुड़-चावल की खीर और रोटी का प्रसाद ग्रहण करती हैं.संध्या अर्घ्य: तीसरे दिन व्रती पूरे दिन निर्जल रहकर शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं.प्रातः अर्घ्य: चौथे दिन सूर्योदय से पहले उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर व्रत का समापन होता है.
यह क्रम केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आयुर्वेद और पर्यावरणीय दृष्टि से भी अद्भुत संतुलन दर्शाता है. इस दौरान शरीर विषैले तत्वों से मुक्त होता है, आत्मा अनुशासन से परिष्कृत होती है, और मन संयम से शांत होता है.सूर्य — ऊर्जा का परम स्रोत सूर्य को विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं ने जीवनदायिनी शक्ति माना है.मिस्र की सभ्यता में ‘रा’, जापान में ‘अमातेरासु’, और भारत में ‘सूर्यदेव’ — ये सभी एक ही चेतना के प्रतीक हैं. छठ पर्व उसी चेतना की उपासना है.
सूर्य की किरणें हमारे शरीर को विटामिन-डी प्रदान करती हैं, जो हड्डियों और रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए आवश्यक है. सुबह की किरणें शरीर के प्रत्येक कोशिका को सजीव करती हैं. इसलिए छठ का अर्घ्य अस्ताचलगामी और उदीयमान सूर्य दोनों को दिया जाता है — यानी जीवन के हर पक्ष, हर अवस्था को समान सम्मान.
महिलाओं की भूमिका : श्रद्धा की साक्षात मूर्ति छठ पर्व का सबसे भावनात्मक पहलू है — स्त्री का त्याग और तपस्या। यह व्रत प्रायः महिलाएं ही करती हैं, हालांकि पुरुष भी इसमें पीछे नहीं.
चार दिनों तक निराहार रहकर, ठंडे जल में खड़ी होकर, घंटों तक ध्यानमग्न रहना किसी तपस्या से कम नहीं.यह पर्व नारी-शक्ति के असीम धैर्य, विश्वास और शक्ति का दर्पण है. व्रती महिलाएं न केवल अपने परिवार के लिए वरदान मांगती हैं, बल्कि पूरे समाज की समृद्धि, आरोग्यता और उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना करती हैं.
लोक संस्कृति का उत्सव : गीत, गंध और गंगा की लहरें छठ पर्व केवल पूजा का अनुष्ठान नहीं, यह लोकगीतों, संगीत और सादगी का पर्व है। जब घाटों पर “केलवा जे फरेला घवद से ओ पिया” या “उग हो सूरज देव” जैसे गीत गूंजते हैं, तो पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है.यह गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि पीढ़ियों की स्मृति, मातृत्व की पुकार और आस्था की गूंज हैं.मिट्टी के दीये, बाँस की टोकरी, ठेकुआ, कसार और फल — इन सबका अपना सांस्कृतिक महत्व है.ये लोकजीवन को प्रकृति से जोड़ते हैं.छठ और प्रवासी समाज आज छठ बिहार या पूर्वांचल तक सीमित नहीं रहा.मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, सूरत, चेन्नई से लेकर दुबई, लंदन, सिडनी और न्यूयॉर्क तक इसके आयोजन होने लगे हैं. प्रवासी भारतीयों के लिए यह पर्व अपनी जड़ों से जुड़ने का भावनात्मक पुल बन गया है.
शहरों की बहुमंजिली इमारतों की छतों पर, या समुद्र तटों पर, जब लोग पीले वस्त्रों में सूर्य की आराधना करते हैं, तो वह केवल पूजा नहीं, बल्कि अपने गाँव-घाट, अपनी मिट्टी और अपनी माँ की याद का प्रतीक होता है।पर्यावरण और स्वच्छता का संदेश छठ पर्व का सबसे बड़ा सामाजिक संदेश है — स्वच्छता ही श्रद्धा है. इस पर्व से पहले गाँव-शहर के तालाब, नदी और सड़कों की सफाई होती है. लोग अपने घरों और मोहल्लों को धो-पोंछकर सजाते हैं. छठ व्रत यह सिखाता है कि प्रकृति की पूजा तभी संभव है जब हम कैसे स्वच्छ रखें.
आज जो विश्व प्रदूषण और जल-संकट से जूझ रहा है, तब छठ का यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है।आर्थिक दृष्टि से छठ का प्रभाव छठ केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण अवसर है.मिट्टी के बर्तन बनाने वाले, बांस की टोकरी बनाने वाले, फल-सब्जी विक्रेता, वस्त्र और पूजा सामग्री बेचने वाले — सभी के लिए यह पर्व आय का प्रमुख स्रोत बन जाता है.गाँवों में कुटीर उद्योगों का पुनर्जीवन इस पर्व से देखा जा सकता है.
यह अपने आप में आर्थिक और सामाजिक आत्मनिर्भरता का मॉडल है.सामाजिक समरसता और लोक एकता छठ पर्व में कोई जात-पात, ऊँच-नीच या वर्ग भेद नहीं रहता.गाँव का अमीर हो या गरीब, सब एक ही घाट पर खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं.यह पर्व सामाजिक समानता का प्रतीक है — जहाँ भक्ति ही पहचान है और सत्य ही धर्म।आधुनिक संदर्भों में छठ की चुनौतियाँ तेजी से बदलते समय में, जब जीवन की गति कृत्रिम होती जा रही है, छठ जैसे पर्वों के सामने भी कई चुनौतियां हैं.
नदियों का प्रदूषण, प्लास्टिक का अत्यधिक उपयोग, और नगरीकरण के कारण प्राकृतिक घाटों का अभाव — ये सब इस महापर्व की पवित्रता को चुनौती दे रहे हैं.इसलिए अब यह आवश्यक है कि हम छठ को केवल धार्मिक अनुष्ठान न मानें, लेकिन पर्यावरणीय आंदोलन के रूप में भी देखें. हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह नदी, तालाब और पर्यावरण की रक्षा करें, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी छठ की वही दिव्या महसूस कर सकें.
छठ : लोकजीवन में स्त्री-पुरुष की समान भागीदारी भले ही व्रत करने वाली महिला प्रमुख रूप से केंद्र में होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस पर्व में समान भूमिका निभाते हैं.पूरे परिवार का सहयोग, प्रसाद बनाने में मदद, घाट सजाने में श्रमदान — यह सब मिलकर पारिवारिक एकता और सामूहिक जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.
छठ का यह स्वरूप भारतीय परिवार की उस परंपरा को पुनः जीवित करता है, जिसमें घर ही मंदिर और परिवार ही समाज होता है.सांस्कृतिक निर्यात : विश्व में बिहार की पहचान छठ ने बिहार की पहचान को नया आयाम दिया है.
आज न्यू जर्सी, मेलबर्न, दुबई, मस्कट, सिंगापुर, लंदन, मॉरीशस तक इस पर्व का आयोजन होता है.विदेशों में रहने वाले भारतीय अपने बच्चों को यह सिखाते हैं कि यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि संस्कार और जीवनशैली है.विश्व स्तर पर यह पर्व भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का उदाहरण बन चुका है.छठ और नारी सशक्तिकरण इस पर्व में नारी केवल पूजा करने वाली नहीं, बल्कि संरक्षक और नेतृत्वकर्ता की भूमिका में होती है.सफाई से लेकर आयोजन तक, हर स्तर पर महिला नेतृत्व करती हैं.उनकी एकाग्रता, अनुशासन और संयम समाज को यह संदेश देता है कि नारी शक्ति यदि संकल्प कर ले, तो असंभव कुछ भी नहीं.यह पर्व स्त्री के भीतर छिपे ऋषिता की पहचान है.लोक कला और साहित्य में छठ छठ का प्रभाव लोक कला, चित्रकला, नृत्य और साहित्य तक फैला हुआ है.
मधुबनी चित्रों में सूर्य की आराधना के दृश्य, भोजपुरी कविताओं में व्रती के गीत, और हिंदी साहित्य में आस्था के प्रतीक के रूप में छठ — ये सभी इस पर्व की सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाते हैं.भोजपुरी सिनेमा और गीतों ने भी इसे जन-जन तक पहुँचाया है, जिससे यह पर्व लोकधारा से राष्ट्रीय धारा में परिवर्तित हुआ है.आस्था और विज्ञान का संगम छठ पर्व का हर नियम विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है.सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अर्घ्य देने से शरीर की कोशिकाएं सौर ऊर्जा को ग्रहण करती हैं.निर्जल उपवास शरीर के भीतर विषैले तत्वों को निकालता है.प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग पर्यावरण-संरक्षण को बढ़ावा देता है. इस प्रकार यह पर्व आस्था और विज्ञान के बीच संतुलन का अद्भुत उदाहरण है.
निष्कर्ष : छठ एक जीवन-दर्शन छठ केवल पूजा नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है.यह सिखाता है कि जीवन में शुद्धता, अनुशासन, संयम और प्रकृति के प्रति सम्मान ही सच्ची भक्ति है.जब डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो यह जीवन के संघर्षों के प्रति आभार है;और जब उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, तो यह भविष्य की आशा का प्रतीक है.आज के भौतिक युग में, जहां आडंबर और उपभोग का अंधकार फैलता जा रहा है, छठ महापर्व एक दीपक की तरह है — जो हमें याद दिलाता है कि आस्था केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि हमारे कर्म, हमारी निष्ठा और हमारे पर्यावरण की रक्षा में है.यह पर्व हमें जोड़ता है — मनुष्य से मनुष्य को, मनुष्य से प्रकृति को, और मनुष्य से परमात्मा को।समापन विचार जब घाटों पर डूबते सूर्य की सुनहरी किरणें जल में झिलमिलाती हैं, व्रती के हाथ folded होकर प्रार्थना में उठते हैं, और हवा में गूंजता है —
"छठ मइया के जयकारा, उग हो सूरज देव!" — तब लगता है मानो सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक ही सुर में कह रहा हो — “यह आस्था नहीं, यह जीवन का उत्सव है.”
आलोक कुमार